गाड़ी अगले मोड़ पर घूमी और सड़क के किनारे रुक गई. या कहो कि रोक दी गयी. कुछ देर पहले ही तो
हम रुके थे फिर अचानक? हरीओम जी को हम पाँचो इसी सवाल के साथ देख रहे थे.
समझ गए। बोले टिहरी बांध देख लीजिए. विज्ञानं का अनोखा चमत्कार.
ऋषिकेश से निकले हुए काफी
समय हो चुका था, इस बार भी बिना किसी को
बताये हम यूँ ही निकल पड़े थे गोमुख की तरफ। रात भर
के उनींदे हम कुछ खुमारी में थे,
कि हरीओम जी ( हमारे सारथि) जी ने कहा की टिहरी बांध
देख लो. अब तक ना जाने कितना कुछ
पढ़ा और सुना the इस विशालकाय बैराज के बारे में, उत्सुकता से गाड़ी से नीचे
उतरे।
सूरज ऊपर चढ़ आया था, भादों के उस महीने में बादलों और सूरज की शरारतों का सबूत सामने था.
अठखेलियां, लुका छिपी। सफ़ेद
खरगोश से सफ़ेद बादल रुई के फाहों की मानिंद इधर उधर उड़ रहे थे. धूप उनका पीछा करती हुई सी जाने किस और बही जा रही थी.
और हवा जैसे अभी अभी पहाड़ों से नहा धोकर उतरी थी. बाहर निकलते ही हवा ने ऐसे
छुआ मानो मेले के लिए निकली हो और हम रह में मिल गए.
सड़क पार की. उस तरफ जो था
वो अविश्वश्नीय था, अकल्पनीय। ...
इतनी विशाल जल राशि,
पानी का इतना बड़ा ढेर?
मानो पनियालापना दुनिया को
अपने सा करना चाहता हो.
महाभारत में भीष्म ने जब गंगा के प्रवाह को रोक दिया था तो क्या दृष्य रहा होगा?
भागीरथी जब भगवान् शंकर की जटाओं में उलझी होगी तो कुछ ऐसी ही रही होगी क्या?
कितने सारे सवाल मन में, और आँखे मानो इतर चाहती थी, हम सब
हतप्रभ से खड़े थे, क्या ये प्रकृति पर मानव विजय का प्रतीक है या
मानव की अनाधिकार चेष्टा। विज्ञानं के विराट स्वरुप, मानव के मष्तिष्क की ताकत
और ना जाने क्या क्या चर्चा में आ गया,
मैं दूर एक पत्थर पर बैठे
हरिओम जी के पास चला गया की उनसे पूछा - यह
महान काम हुआ कैसे, यह सब संभव कैसे हुआ? कितना समय लगा
यह बांध बन्ने में?
मुझे क्या पता था की गंगा
के इस बांध के बारे में मेरे सवाल उनके सब्र का बांध तोड़ देंगे,
मेरे ‘कंधे पर हाथ रख कर
दुसरे हाथ की ऊँगली से इशारा करते हुए बोले – भैय्या वहां सामने मेरा गाँव था,
जहाँ मैंने जन्म लिया, मैं खेला, कूदा, पला, पढ़ा.
पर इस बांध ने सब निगल
लिया.
मेरे हिस्से की एक एक याद
इस पानी के ढेर के नीचे दफ़न हो गयी. और केवल मेरा गाँव नहीं, ना जाने कितने गाँव.
कई बार मन करता है कि वो एक
ऋषि हुए हैं न अगस्त्य उनकी तरह एक घूँट में इस अथाह पानी को पी जाऊं. मुक्त कर
लूं वो सब जो पानी ने जकड़ा है, मैं जनता हूँ वो पानी के नीचे आज भी सब कुछ बिखरा
पड़ा है, जीवित, सिसकता हुआ,
आपको पता है आज भी जाने
कितने चूल्हों की राख गरम होगी इस हजारों फिट पानी के नीचे, उसकी आंच को आप महसूस
नहीं कर सकते, मैं कर सकता हूँ.
न जाने कितने आँगन अपने ऊपर
पसरे इस नीले पानी के ऊपर के नीले आसमान को निहार रहे हैं, जाने कितनी पहाड़ी धुनें
इस पानी के नीचे कसमसा रही हैं कि उन्हें खुलकर गुनगुनाया जा सके.
वे कहते हैं उन्होंने नया
शहर बसा दिया,
नए घर दे दिए,
पर घर कहाँ दियें हैं बस
मकान दिए हैं भैय्या, जिन मकानों की आत्मा इन झील में दबी हैं, उन मकानों को आत्मा
लौटा देगे? या उन देहरियों की पवित्रता लौटा देंगे जिन्हें हमारे पूर्वजों की पग रज ने पवित्र किया
था. ना जाने कितने पंछियों की कलरव छीनी है इन्होने, कितने पशुओं के घर उजाड़े हैं.
ना जाने कितने पड़ोस उजड़े हैं, सम्बन्ध बिखरे हैं, कोई जोड़ सकेगा उन्हें?
संस्कृति और सभ्यता एक दिन
में नहीं बनती, उसे बनने में सदियों लगती हैं. उन सदियों के इतिहास ना जाने कितने
लोगों से सामूहिक त्याग से लिखा जाता है, इस जलराशि के नीचे रात के नीरभ सन्नाटे
में उन सदियों का रुदन हम सुनते हैं, तो हमारी छाती फटती है,
कुछ वापस नहीं आ सकता. आने
वाली पीढ़ियों को दिया जा सकता था हमने सब इस पानी की कोख में झोंक दिया.
जीवन का भरण पोषण करने वाली
गंगा को इस विज्ञान ने क्या से क्या बना दिया.
मैं हरिओम जी की पलकों की
कोरों को गीली होते हुए देख रहा था. एक आंसू बस छलकने ही वाला था, एक पल मुझे लगा
कि गंगा का अथाह जल, इस असीमित झील का
विस्तार इस एक आंसू के सामने कितना बौना है? इस आँख के पानी की पवित्रता का कोई
सानी नहीं.
मैं क्या कहता
विज्ञान की सारी महानता मुझे
उसी एक आंसू में डूबती दिखाई दी.
हम चुपचाप गाड़ी में आ बैठे.
झील के साथ साथ हम दूर तक चलते रहे, मेरी हिम्मत नहीं थी कि उसे फिर से देखूं, फिर
भी एक बार पीछे मुड़कर देखा कि क्या पता उस पानी से नीचे से कोई गाँव मुझे उठता हुआ
नजर आ जाये.