Friday, March 28, 2014

बर्तनों की अदला-बदली...

सुबह सुबह अभी आलसपन पूरी तरह से गया नहीं था, रात ही महानगर से गाँव वापस पहुंचा था. सफ़र की थकन आँखों में अभी भी जमा थी. पर गाँव की सुबह की ताजा हवा के एहसास का लोभ संवरण नही कर पाता कभी भी - इसलिए आज भी जल्दी उठ गया था. हालाँकि गाँव वालों के हिसाब से वो जल्दी नही था. मैं जरा टहलकर आने की सोच ही रहा था कि माँ ने आवाज लगा ली.
चौके की तरफ गया तो माँ एक बड़े लोटे में दूध लिए खड़ी थी. "जा इसे .............चाची के घर दे आ, - उनकी गाय दूध से भाग गयी है - चाची खीर बना लेगी.... रोज तो नही भेज पाती पर  कभी कभी ".
लोटा उनके हाथ से लिया ओर मुड़ा ही था कि बोल पड़ी - और हाँ सुन -  वापसी में आते हुए .............. चाचा के घर ये शगुन के इक्यावन रुपए देते आना . उनकी छोटी बेटी की कल बारात आने वाली है. 
"हमारे घर चिठ्ठी आई है क्या मां"? मैं यूँ ही पूछ बैठा. 
माँ बोली - अब गाँव की बेटियों को कन्यादान भी क्या हम चिठ्ठियों पर देंगे?
अरे !!! 
तुझे पता है तेरे होने पर ............... चाची ने पूरे सवा महीने कितना काम किया था. बिना कहे.. बिना बुलाये. और अब हम चिठ्ठियों की बाट जोहें. 
ये कार्ड ओर इनविटेशन (माँ इतनी अंग्रेजी तो जानती ही है) तुम्हारी मॉडर्न पीढ़ी को ही मुबारक, हम तो सीधे सादे लोग हैं. दिल जो कहता है करते है.
माँ ने ये कैसा प्रश्न खड़ा किया था.

"चाची! माँ ने दूध भिजवाया है."
हालचाल ओर थोड़ी सी बातचीत. बैठने और कुछ खा कर जाने की जिद सा अनुग्रह. मैं लोटा लेकर वापस जाना चाहता था. चाची लोटा लायी. 
मैंने देखा तो लोटा - आटे से भरा था. बोलीं - धान का आटा है, छोटे भाई का नाम लेते हुए कहा - उसे धान की रोटियां बहुत पसंद हैं ना?

मेरे भाई को धान की रोटियां पसंद हैं - ये मुझे आज तक नहीं पता था. चाची को पता है..

मैंने फिर भी औपचारिकतावश कह दिया - इसकी क्या जरूरत थी. 
एक हलकी सी मुस्कराहट और मेरे गाल पर हलकी  सी थपथपाहट... घर से बर्तन खाली नही दिया करते. लोटे के साथ ही चाची ने दो कटोरियाँ और थमा दीं. इन्हें भी ले जाना - दीदी ने एक दिन कढ़ी ओर एक दिन अमिया की चटनी भिजवाई थी.

मैं वापस लौट पड़ा. घर की तरफ. शगुन के रुपये मेरी जेब में पड़े थे. महानगर में रहते रहते यह सब कहाँ छूट गया. मेरा गाँव जैसे मेरे भीतर से बहार निकल रहा था. मुझे लगा जैसे मैं - किसी नए समाज में खड़ा था - बर्तनों की दुनिया मुझे घेरे खड़ी थी. सामाजिक साराकारों के ये कौन से पैमाने थे? जहाँ अपनापन एक कटोरी कढ़ी, एक लोटा आटा ओर शगुन के कुछ रुपये के मजबूत आधार पर खड़ा हैं.

मैंने घर जाकर सब कुछ माँ को दे दिया.  मन अभी भी बर्तनों में ही उलझा हुआ था. उसके बर्तन के टोकरे में पता नहीं किस किस की कटोरियाँ और लोटे होंगे.. बर्तनों की अदला-बदली और उसके पीछे के मनोविज्ञान को समझने का असफल प्रयास कर रहा था.
मैं वापस लौट पड़ा. अभी एक काम और बाकी था. शगुन के रुपये मेरी जेब में अब भी पड़े थे...





Friday, March 21, 2014

यह चिट्ठी तुम्हारे लिए है. सिर्फ तुम्हारे लिए -

कुछ भीतर बहुत दिनों से उबल रहा था. तब से जब से तुम्हे वापस न ला सका था. तब से जब से गंगा के किनारे एक तरफ आग ठंडी हो रही थी और दूसरी तरफ सूरज ठंडा हो रहा था . गंगा दूर खिसकती रही थी मुझसे उन तीन घंटे . वापसी में माँ ने पूछा था साथ क्यों नही लाया?  क्या कहता.. चुप बहुत चुप. तुमने भी कहाँ सोचा एक बार की कितना अकेला छोड़कर जाओगे उसे.

अस्पताल के चार दिन. आँखों से बाहर नहीं जाते. रह रह कर वही बिस्तर याद  आता है. सफ़ेद ओर हरी चादरों के साथ. तुम्हे पता था कि मैं रात  को जाग नहीं सकता. पर तीन रात कहाँ सोया था मैं. सोये तो तुम भी नहीं थे. कितनी तकलीफ में थे तुम मैंने  देखा था. तुम्हारे सिरहाने बैठे बैठे.

माँ हमेशा मुझसे बताती थी कि तुम अपनी कोई तकलीफ किसी से नहीं बताते. बताई तो तब भी नहीं थी जब बेचैनी से आँखें बंद हो रही थी तुम्हारी. पीलापन लिए उन आखों का सूनापन मेरे भीतर घर कर बैठा है. जैसे मुझसे कुछ मांग रहा हो.
बस कुछ कुछ देर बाद एक ही रट - घर ले चलो. कैसे ले आता बताओ तुम्हे घर वापस. जिद्दी तो बचपन से ही थे तुम - दादा जी भी तो यही कहते थे. जिद्दी थे तुम. बस हमेशा अपने मन की की. फिर भी पता नही क्यों लोग जुड़े रहते थे तुमसे. बस मैं ही नहीं जुड़ पाया कभी. अस्पताल के उन उन आखिरी चार दिनों को छोड़कर.

अस्पताल में भी तुमने कोई बात नही की मुझसे. खाली आँखों से देखते भर रहे. गुस्सा भी हुए थे. याद है तुम्हे ?- खिचड़ी गरम कहाँ थी. मैंने तो फूंक मार कर खिलाई थी (याद नही कभी तुमने - मुझे अपने हाथ से कुछ खिलाया हो)  फिर भी तुम ........ दो  दिन बाद - कुछ भी गरम नही लगा न तुम्हे. लोग आंच से दूर हट रहे थे. ओर तुम चुपचाप लेते रहे. जिद्दी थे ना... एक बार फिर से गुस्सा हो जाते मुझ पर - मुझे भी अच्छा लगता.
काश..

डाक्टर आश्वासन दे रहे थे. मैंने सोचा था कि तुम ठीक हो जाओ तो  घर जाने के बाद तुमसे खुलकर बात करूंगा. कि यह सब कब तक चलेगा. कब बंद करोगे रोज़ रोज़ का यहाँ तमाशा. लेकिन तुमने मौका ही कहाँ दिया . एक मौका तो बनता था ना?

मैंने तुमसे अपेक्षा रखनी छोड़ दी थी. तुम्हे मुझसे हमेशा अपेक्षा रही. मैं ये भी जानता हूँ कि मेरी हर उपलब्धि पर तुम खुश भी होते थे. सामने नहीं पर पीछे. माँ सब बता देती थी मुझे. सामने भी खुश हो जाया करते तो क्या पता मैं जुड़ पाता तुमसे. अपनी पहली किताब मैंने दादा जी ओर माँ को समर्पित कर दी. तुमने एक भी नही कहा कि तुम्हारा नाम क्यों नही लिखा. मैं चाहता था कि तुम मुझसे नाराज हो, गुस्सा हो - नही हुए. क्यों? जवाब दोगे?

आखिरी वक्त मैं तुम्हारे साथ नही था. पता भी क्या था? सोचा था घर आओगे तो एक बार तुम्हारी गोदी में सिर जरूर रखूँगा. जबरदस्ती ही सही अपने बाल सहलवाऊंगा एक बार तुमसे. . तुमने उसका भी मौका नही दिया मुझे - नारज क्यों न होऊ...

मैंने हजारों लोगों को चिट्ठियां लिखीं. तुम्हे एक बार लिखी थी. जवाब नही दिया था तुमने. इस बार भी नहीं दोगे.
पर मैं लिखूंगा - नाराज़ हूँ ना तुमसे इसलिए लिखूंगा. .....