चौके की तरफ गया तो माँ एक बड़े लोटे में दूध लिए खड़ी थी. "जा इसे .............चाची के घर दे आ, - उनकी गाय दूध से भाग गयी है - चाची खीर बना लेगी.... रोज तो नही भेज पाती पर कभी कभी ".
लोटा उनके हाथ से लिया ओर मुड़ा ही था कि बोल पड़ी - और हाँ सुन - वापसी में आते हुए .............. चाचा के घर ये शगुन के इक्यावन रुपए देते आना . उनकी छोटी बेटी की कल बारात आने वाली है.
"हमारे घर चिठ्ठी आई है क्या मां"? मैं यूँ ही पूछ बैठा.
माँ बोली - अब गाँव की बेटियों को कन्यादान भी क्या हम चिठ्ठियों पर देंगे?
अरे !!!
तुझे पता है तेरे होने पर ............... चाची ने पूरे सवा महीने कितना काम किया था. बिना कहे.. बिना बुलाये. और अब हम चिठ्ठियों की बाट जोहें.
ये कार्ड ओर इनविटेशन (माँ इतनी अंग्रेजी तो जानती ही है) तुम्हारी मॉडर्न पीढ़ी को ही मुबारक, हम तो सीधे सादे लोग हैं. दिल जो कहता है करते है.
माँ ने ये कैसा प्रश्न खड़ा किया था.
"चाची! माँ ने दूध भिजवाया है."
हालचाल ओर थोड़ी सी बातचीत. बैठने और कुछ खा कर जाने की जिद सा अनुग्रह. मैं लोटा लेकर वापस जाना चाहता था. चाची लोटा लायी.
मैंने देखा तो लोटा - आटे से भरा था. बोलीं - धान का आटा है, छोटे भाई का नाम लेते हुए कहा - उसे धान की रोटियां बहुत पसंद हैं ना?
मेरे भाई को धान की रोटियां पसंद हैं - ये मुझे आज तक नहीं पता था. चाची को पता है..
मैंने फिर भी औपचारिकतावश कह दिया - इसकी क्या जरूरत थी.
एक हलकी सी मुस्कराहट और मेरे गाल पर हलकी सी थपथपाहट... घर से बर्तन खाली नही दिया करते. लोटे के साथ ही चाची ने दो कटोरियाँ और थमा दीं. इन्हें भी ले जाना - दीदी ने एक दिन कढ़ी ओर एक दिन अमिया की चटनी भिजवाई थी.
मैं वापस लौट पड़ा. घर की तरफ. शगुन के रुपये मेरी जेब में पड़े थे. महानगर में रहते रहते यह सब कहाँ छूट गया. मेरा गाँव जैसे मेरे भीतर से बहार निकल रहा था. मुझे लगा जैसे मैं - किसी नए समाज में खड़ा था - बर्तनों की दुनिया मुझे घेरे खड़ी थी. सामाजिक साराकारों के ये कौन से पैमाने थे? जहाँ अपनापन एक कटोरी कढ़ी, एक लोटा आटा ओर शगुन के कुछ रुपये के मजबूत आधार पर खड़ा हैं.
मैंने घर जाकर सब कुछ माँ को दे दिया. मन अभी भी बर्तनों में ही उलझा हुआ था. उसके बर्तन के टोकरे में पता नहीं किस किस की कटोरियाँ और लोटे होंगे.. बर्तनों की अदला-बदली और उसके पीछे के मनोविज्ञान को समझने का असफल प्रयास कर रहा था.
मैं वापस लौट पड़ा. अभी एक काम और बाकी था. शगुन के रुपये मेरी जेब में अब भी पड़े थे...
मैं वापस लौट पड़ा. घर की तरफ. शगुन के रुपये मेरी जेब में पड़े थे. महानगर में रहते रहते यह सब कहाँ छूट गया. मेरा गाँव जैसे मेरे भीतर से बहार निकल रहा था. मुझे लगा जैसे मैं - किसी नए समाज में खड़ा था - बर्तनों की दुनिया मुझे घेरे खड़ी थी. सामाजिक साराकारों के ये कौन से पैमाने थे? जहाँ अपनापन एक कटोरी कढ़ी, एक लोटा आटा ओर शगुन के कुछ रुपये के मजबूत आधार पर खड़ा हैं.
मैंने घर जाकर सब कुछ माँ को दे दिया. मन अभी भी बर्तनों में ही उलझा हुआ था. उसके बर्तन के टोकरे में पता नहीं किस किस की कटोरियाँ और लोटे होंगे.. बर्तनों की अदला-बदली और उसके पीछे के मनोविज्ञान को समझने का असफल प्रयास कर रहा था.
मैं वापस लौट पड़ा. अभी एक काम और बाकी था. शगुन के रुपये मेरी जेब में अब भी पड़े थे...