यह चिट्ठी तुम्हारे लिए है. सिर्फ तुम्हारे लिए -
कुछ भीतर बहुत दिनों से उबल रहा था. तब से जब से तुम्हे वापस न ला सका था. तब से जब से गंगा के किनारे एक तरफ आग ठंडी हो रही थी और दूसरी तरफ सूरज ठंडा हो रहा था . गंगा दूर खिसकती रही थी मुझसे उन तीन घंटे . वापसी में माँ ने पूछा था साथ क्यों नही लाया? क्या कहता.. चुप बहुत चुप. तुमने भी कहाँ सोचा एक बार की कितना अकेला छोड़कर जाओगे उसे.
मैंने तुमसे अपेक्षा रखनी छोड़ दी थी. तुम्हे मुझसे हमेशा अपेक्षा रही. मैं ये भी जानता हूँ कि मेरी हर उपलब्धि पर तुम खुश भी होते थे. सामने नहीं पर पीछे. माँ सब बता देती थी मुझे. सामने भी खुश हो जाया करते तो क्या पता मैं जुड़ पाता तुमसे. अपनी पहली किताब मैंने दादा जी ओर माँ को समर्पित कर दी. तुमने एक भी नही कहा कि तुम्हारा नाम क्यों नही लिखा. मैं चाहता था कि तुम मुझसे नाराज हो, गुस्सा हो - नही हुए. क्यों? जवाब दोगे?
आखिरी वक्त मैं तुम्हारे साथ नही था. पता भी क्या था? सोचा था घर आओगे तो एक बार तुम्हारी गोदी में सिर जरूर रखूँगा. जबरदस्ती ही सही अपने बाल सहलवाऊंगा एक बार तुमसे. . तुमने उसका भी मौका नही दिया मुझे - नारज क्यों न होऊ...
मैंने हजारों लोगों को चिट्ठियां लिखीं. तुम्हे एक बार लिखी थी. जवाब नही दिया था तुमने. इस बार भी नहीं दोगे.
पर मैं लिखूंगा - नाराज़ हूँ ना तुमसे इसलिए लिखूंगा. .....
कुछ भीतर बहुत दिनों से उबल रहा था. तब से जब से तुम्हे वापस न ला सका था. तब से जब से गंगा के किनारे एक तरफ आग ठंडी हो रही थी और दूसरी तरफ सूरज ठंडा हो रहा था . गंगा दूर खिसकती रही थी मुझसे उन तीन घंटे . वापसी में माँ ने पूछा था साथ क्यों नही लाया? क्या कहता.. चुप बहुत चुप. तुमने भी कहाँ सोचा एक बार की कितना अकेला छोड़कर जाओगे उसे.
अस्पताल के चार दिन. आँखों से बाहर नहीं जाते. रह रह कर वही बिस्तर याद आता है. सफ़ेद ओर हरी चादरों के साथ. तुम्हे पता था कि मैं रात को जाग नहीं सकता. पर तीन रात कहाँ सोया था मैं. सोये तो तुम भी नहीं थे. कितनी तकलीफ में थे तुम मैंने देखा था. तुम्हारे सिरहाने बैठे बैठे.
माँ हमेशा मुझसे बताती थी कि तुम अपनी कोई तकलीफ किसी से नहीं बताते. बताई तो तब भी नहीं थी जब बेचैनी से आँखें बंद हो रही थी तुम्हारी. पीलापन लिए उन आखों का सूनापन मेरे भीतर घर कर बैठा है. जैसे मुझसे कुछ मांग रहा हो.
बस कुछ कुछ देर बाद एक ही रट - घर ले चलो. कैसे ले आता बताओ तुम्हे घर वापस. जिद्दी तो बचपन से ही थे तुम - दादा जी भी तो यही कहते थे. जिद्दी थे तुम. बस हमेशा अपने मन की की. फिर भी पता नही क्यों लोग जुड़े रहते थे तुमसे. बस मैं ही नहीं जुड़ पाया कभी. अस्पताल के उन उन आखिरी चार दिनों को छोड़कर.
अस्पताल में भी तुमने कोई बात नही की मुझसे. खाली आँखों से देखते भर रहे. गुस्सा भी हुए थे. याद है तुम्हे ?- खिचड़ी गरम कहाँ थी. मैंने तो फूंक मार कर खिलाई थी (याद नही कभी तुमने - मुझे अपने हाथ से कुछ खिलाया हो) फिर भी तुम ........ दो दिन बाद - कुछ भी गरम नही लगा न तुम्हे. लोग आंच से दूर हट रहे थे. ओर तुम चुपचाप लेते रहे. जिद्दी थे ना... एक बार फिर से गुस्सा हो जाते मुझ पर - मुझे भी अच्छा लगता.
काश..
माँ हमेशा मुझसे बताती थी कि तुम अपनी कोई तकलीफ किसी से नहीं बताते. बताई तो तब भी नहीं थी जब बेचैनी से आँखें बंद हो रही थी तुम्हारी. पीलापन लिए उन आखों का सूनापन मेरे भीतर घर कर बैठा है. जैसे मुझसे कुछ मांग रहा हो.
बस कुछ कुछ देर बाद एक ही रट - घर ले चलो. कैसे ले आता बताओ तुम्हे घर वापस. जिद्दी तो बचपन से ही थे तुम - दादा जी भी तो यही कहते थे. जिद्दी थे तुम. बस हमेशा अपने मन की की. फिर भी पता नही क्यों लोग जुड़े रहते थे तुमसे. बस मैं ही नहीं जुड़ पाया कभी. अस्पताल के उन उन आखिरी चार दिनों को छोड़कर.
अस्पताल में भी तुमने कोई बात नही की मुझसे. खाली आँखों से देखते भर रहे. गुस्सा भी हुए थे. याद है तुम्हे ?- खिचड़ी गरम कहाँ थी. मैंने तो फूंक मार कर खिलाई थी (याद नही कभी तुमने - मुझे अपने हाथ से कुछ खिलाया हो) फिर भी तुम ........ दो दिन बाद - कुछ भी गरम नही लगा न तुम्हे. लोग आंच से दूर हट रहे थे. ओर तुम चुपचाप लेते रहे. जिद्दी थे ना... एक बार फिर से गुस्सा हो जाते मुझ पर - मुझे भी अच्छा लगता.
काश..
डाक्टर आश्वासन दे रहे थे. मैंने सोचा था कि तुम ठीक हो जाओ तो घर जाने के बाद तुमसे खुलकर बात करूंगा. कि यह सब कब तक चलेगा. कब बंद करोगे रोज़ रोज़ का यहाँ तमाशा. लेकिन तुमने मौका ही कहाँ दिया . एक मौका तो बनता था ना?
मैंने तुमसे अपेक्षा रखनी छोड़ दी थी. तुम्हे मुझसे हमेशा अपेक्षा रही. मैं ये भी जानता हूँ कि मेरी हर उपलब्धि पर तुम खुश भी होते थे. सामने नहीं पर पीछे. माँ सब बता देती थी मुझे. सामने भी खुश हो जाया करते तो क्या पता मैं जुड़ पाता तुमसे. अपनी पहली किताब मैंने दादा जी ओर माँ को समर्पित कर दी. तुमने एक भी नही कहा कि तुम्हारा नाम क्यों नही लिखा. मैं चाहता था कि तुम मुझसे नाराज हो, गुस्सा हो - नही हुए. क्यों? जवाब दोगे?
आखिरी वक्त मैं तुम्हारे साथ नही था. पता भी क्या था? सोचा था घर आओगे तो एक बार तुम्हारी गोदी में सिर जरूर रखूँगा. जबरदस्ती ही सही अपने बाल सहलवाऊंगा एक बार तुमसे. . तुमने उसका भी मौका नही दिया मुझे - नारज क्यों न होऊ...
मैंने हजारों लोगों को चिट्ठियां लिखीं. तुम्हे एक बार लिखी थी. जवाब नही दिया था तुमने. इस बार भी नहीं दोगे.
पर मैं लिखूंगा - नाराज़ हूँ ना तुमसे इसलिए लिखूंगा. .....
बस पापा की याद आ गई।
ReplyDeleteno words for this...aankhen bhar aayi.
ReplyDeleteMeri ankho se to pata nahi padte padte kab ansu nikalne lage pura ghatna kram ankho ke samne ghoom gaya.Larkin papa kaise bhi ho apne bete ki uplabhidiyon hamesa khush hotel gain.K.D.Deshwal Bijnor.
ReplyDeleteBhai abhi tak pura nhi pad paayi, aankein bhar aayi. Pad ke aisa laga aap kitna samjhte hai mujhe. Jaisa aap likhte ho koi nhi likh sakta.
ReplyDeleteBig fan of urs......